उठता है। उपयोगितावाद ही के विषय में ऐसा प्रश्न उठाने का कारण यह है कि जब किसी आदमी से कहा जाता है कि वह किसी चीज़ को आचार शास्त्र का आधार माने जिसको मानने का वह आदी नहीं है, अर्थात् जिस बात को अब तक वह आधार मानता हुआ नहीं पाया है, तो वह पहले पहल घबराता है क्योंकि आचार शास्त्र की वे बातें जो उसकी शिक्षा के कारण तथा दूसरे लोगों की देखा-देखी उसके दिल में बैठ गई हैं उसको स्वत: सिद्ध मालूम पड़ती हैं। जब उससे किसी ऐसे सर्वव्यापक सिद्धान्त को मानने के लिये कहा जाता है जिस पर प्रचलित रस्म-रिवाज़ (Custom) की वैसी मौहर नहीं लगी हुई है तो उसको ऐसे सिद्धान्त में विरोधाभास प्रतीत होता है। मूल सिद्धान्त की अपेक्षा कल्पित उप सिद्धान्तों को अनुकरणीय मानने की ओर अधिक प्रवृत्ति होती है। ऐसा मालूम पड़ता है कि ऊपरी इमारत नीव के आधार पर खड़ी रहने की अपेक्षा बिना नीव के ही अधिक अच्छी तरह खड़ी रह सकती है। वह अपने दिल में कहता है कि किसी की हत्या न करने या किसी का माल न लूटने तथा विश्वासघात न करने या धोखा न देने के लिये तो मैं बाधित हूं किन्तु सार्वजनिक प्रसन्नता या सुख बढ़ाने के लिये मैं क्यों बाधित हूं? यदि किसी बात में मेरा हित है तो मैं सार्वजनिक हित की अपेक्षा अपने ही हित को क्यों न अधिक अच्छा समझूं?
यदि आचार विषयक भावना (Moral Sense) के सम्बन्ध में उपयोगितावाद की कल्पना ठीक है तो इस प्रकार की कठिनाई उस समय तक सदैव उपस्थित होती रहेगी जब तक कि वे प्रभाव-जिन से चरित्र बनता है मूल सिद्धान्त पर भी उतना ही जोर न देने लगेंगे जितना ज़ोर मूल सिद्धान्त के