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पहिला अध्याय

नहीं रुकसकता। इस प्रसिद्ध मनुष्य ने, जिसकी विचार प्रणाली बहुत दिनों तक दर्शन शास्त्र के इतिहास में उल्लेखनीय बात रहेगी, अपनी उपरोक्त पुस्तक में एक सर्वतन्त्र मूल सिद्धान्त का वर्णन किया है। वह सिद्धान्त यह है-"इस प्रकार काम कर कि जिससे उस नियम को, जिसके अनुसार तू काम करता है, सब हेतुवादी क़ानून मान लें"। किन्तु जब उसने इस सिद्धान्त से आचार विषयक व्यवहारिक धर्मों (फ़रायज़) का निर्धारण किया है तो इस बात को प्रमाणित करने में बिल्कुल अकृतकार्य़ रहा है कि अत्यन्त दुराचारपूर्ण नियमों को सब हेतुवादियों का आचार के नियम मान लेना परस्पर विरोधात्मक है तथा तर्कशास्त्र (भौतिक का ज़िक्र नहीं है) की दृष्टि से असम्भव है। जो कुछ उसने प्रमाणित किया है बस यही है कि इन नियमों के सर्व सम्मत हो जाने का परिणाम यही होगा कि फिर कोई आक्षेप नहीं करेगा।

इस समय अन्य सिद्धान्तों पर और अधिक वाद-विवाद किये बिना ही मैं उपयोगितावाद या प्रसन्नतावाद को समझाने का प्रयत्न करूंगा और इस सिद्धान्त की पुष्टि में ऐसे प्रमाण दूंगा जो कि दिये जा सकते हैं। यह तो प्रत्यक्ष ही है कि जिस अर्थ में साधारणतया प्रमाण शब्द लिया जाता है उस अर्थ में किसी प्रकार का प्रमाण नहीं दिया जा सकता। अन्तिम ध्येय से सम्बन्ध रखने वाली समस्यों का साक्षात् प्रमाण (Direct Proof) नहीं दिया जा सकता। किसी चीज़ को इसी प्रकार अच्छा प्रमाणित किया जा सकता है कि उसके कारण अमुक वस्तु प्राप्त होगी और उस वस्तु का अच्छा होना स्वतः सिद्ध है अर्थात् उसका अच्छा होना प्रमाणित करने के लिये किसी