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उपयोगितावाद

नियम-बद्धता पाई जाती है उसका कारण किसी न माने हुए आदर्श का अध्याहार्य प्रभाव है। यद्यपि किसी सर्व सम्मत मूल सिद्धान्त के न होने के कारण आचार शास्त्र ने पथ-प्रदर्शक का इतना काम नहीं किया है जितना मनुष्य की वासनाओं को पवित्र बनाने का; किन्तु फिर भी चूंकि मनुष्य की भावनाओं पर-रुचि तथा घृणा दोनों प्रकार की-इस बात का बहुत प्रभाव पड़ता है कि कौन २ सी वस्तुओं का मनुष्य की प्रसन्नता पर कैसा प्रभाव माना जाता है; इस कारण उपयोगितावाद के सिद्धान्त का-या उस सिद्धान्त का जिसको बाद में बैन्थम (Bentham) ने सब से अधिक आनन्द के सिद्धान्त का नाम दिया था-उन मनुष्यों के आचार विषयक सिद्धान्तों पर भी बहुत कुछ प्रभाव पड़ता है जो उपयोगितावाद की प्रमाणिकता को घृणा पूर्वक अस्वीकार करदेते हैं। तत्वज्ञानियों का ऐसा कोई सा सम्प्रदाय नहीं है जो इस बात को नहीं मानता है कि आचार शास्त्र की बहुत सी छोटी २ बातों में कार्यों द्वारा प्रसन्नता के ऊपर पड़नेवाले प्रभाव पर विशेष ध्यान दिया जाता है; चाहे तत्त्वज्ञानी लोग इस बात को आचार शास्त्र का मूल सिद्धान्त तथा नैमित्तिक धर्म मानना कितना ही अस्वीकार क्यों न करें। बल्कि मैं तो यहां तक कह सकताहूं कि स्वतः सिद्ध सिद्धान्त के पोषक आचार शास्त्रियों के लिये उपयोगितावाद की दलीलों का मानना अनिवार्य है। इस प्रकार के तत्त्वज्ञानियों की आलोचना करने का इस समय मेरा विचार नहीं है। किन्तु उदाहरण के रूप से इस प्रकार के तत्त्वज्ञानियों में सब से प्रसिद्ध तत्त्वज्ञानी कान्ट (Kant) की 'Metaphysics of Ethics' नामक पुस्तक का उल्लेख करने से