भित्ती कुछ साधारण नियम होने चाहिये। दोनों का आचार शास्त्र के अस्तित्व में पूर्ण विश्वास है, किन्तु वे उन स्वतः सिद्ध सिद्धान्तों की सूची नहीं बनाते जो इस शास्त्र के पूर्वावयव का काम दें। उन सिद्धान्तों को एक मूल सिद्धान्त का अनुवर्ती सिद्ध करने का तो वे बिल्कुल ही प्रयत्न नहीं करते। या तो वे आचार शास्त्र के साधारण उपदेशों को स्वत: सिद्ध मान लेते हैं या उन सर्वतन्त्र सिद्धान्तों (उसूलों) की किसी समानता को मूल सिद्धान्त बता देते हैं। यह समानता उन सर्वतन्त्र सिद्धान्तों या उसूलों से भी कम प्रमाणिक जंचती है। इस ही कारण इस प्रकार के तत्वज्ञानियों के सिद्धान्तों को सर्व प्रियता प्राप्त नहीं हो सकती है। किन्तु फिर भी अपने कथन की शास्त्रीय पुष्टि के लिये या तो उन्हें कोई मूल सिद्धान्त या नियम बताना चाहिये जो सब प्रकार के आचार की भित्ती हो अथवा यदि कई सिद्धान्त हों तो उन में पहिले पीछे का क्रम निर्धारित करना चाहिये तथा एक ऐसा सिद्धान्त या नियम निश्चित करना चाहिये जिस के अनुसार भिन्न २ सिद्धान्तों में परस्पर विरोध होने की दशा में निर्णय किया जा सके। यह सिद्धान्त या नियम स्वतः प्रमाण होना चाहिये।
यह बात बताने के लिये——कि व्यवहार में इस कमी का बुरी प्रभाव कहां तक हुआ है या किस सीमा तक मनुष्य जाति के आचार विषयक विचार किसी निश्चित अन्तिम आदर्श न होने के कारण अनिश्चित हो गये हैं——आचार विषयक प्राचीन तथा अर्वाचीन सिद्धान्तों का वर्णन तथा उनकी आलोचना करनी पड़ेगी। किन्तु यह बात आसानी से प्रमाणित की जा सकती है कि इन आचार-विषयक विचारों में जो कुछ