होती हैं। उन शास्त्रों से उनका सम्बन्ध ऐसा नहीं है जैसा बुनियाद और इमारत का होता है। उनका सम्बन्ध जड़ और वृक्ष का सम्बन्ध है। जिस प्रकार जड़ बिना खोदे हुवे तथा प्रकाश में लाये हुवे ही अपना काम करती रहती है, इसी प्रकार मूल सिद्धान्त कहाने वाले सिद्धान्त भी बिना पूर्णरूप से स्पष्टीकरण हुवे भी शास्त्र का पोषण करते रहते हैं। यद्यपि विज्ञान शास्त्र में विशेष २ घटनाओं से साधारण नियम बनाया जाता है, किन्तु व्यवहारिक शास्त्र में——जैसे आचार शास्त्र या क़ानून——इस का उल्टा भी हो सकता है। सब काम किसी ध्येय को लक्ष्य में रखकर किये जाते हैं। इस कारण यह मानना युक्ति–सङ्गत प्रतीत होता है कि काम करने के नियम उस ध्येय को ध्यान में रख कर बनाये जायें जिस ध्येय के लिये काम किया जाता है। जब हम किसी काम में लगते हैं तो सब से पहिली आवश्यक बात यह है कि हम को इस बात का ठीक २ तथा साफ़ साफ़ ज्ञान होना चाहिये कि हम क्या कर रहे हैं। पीछे के स्थान में हमको आगे की ओर दृष्टि रखनी चाहिये। इस कारण गलत और ठीक का निर्धारण इस प्रकार नहीं होना चाहिये कि हम पहिले ही से कुछ बातों को ठीक और कुछ बातों को गलत मान लें। ठीक और गलत की कसौटी ही से इस बात का निर्धारण होना चाहिये कि कौन काम ठीक है और कौन काम गलत।
यह कठिनाई जन साधारण में प्रचलित प्राकृतिक शक्ति (Natural faculty) की कल्पना से दूर नहीं होती। प्राकृतिक शक्ति की कल्पना को मानने वालों का कहना है कि एक प्रकार की ज्ञानेन्द्रिय या नैसर्गिक बुद्धि होती है जो हम को ठीक