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उपयोगितावाद

में सुकरात बूढ़े प्रोटोगोरास (Protogoras) का उपदेश सुना करता था—यदि प्लेटो के 'वाद विवाद' (Dialogue) का आधार वास्तविक बात चीत है-और उस समय के शास्त्री कहलाने वालों (Sophists) के जन साधारण में प्रचलित आचार विषयक सिद्धान्तों के विरुद्ध उपयोगितावाद का सिद्धान्त प्रमाणित किया करता था, उतने ही भिन्न २ मत इस समय भी हैं।

यह बात ठीक है कि ऐसा ही भ्रम तथा असन्दिग्धता तथा कुछ २ दशाओं में ऐसा ही वैमत्य सब विज्ञानों के मूल सिद्धान्तों में है। गणित शास्त्र तक—जिसके सिद्धान्त प्राय सब शास्त्रों के सिद्धान्तों से स्थिर समके जाते हैं—इस दोष से मुक्त नहीं है। किन्तु इस वैमत्य से इन शास्त्रों की विश्वसनीयता में कुछ बट्टा नहीं लगता । इस ऊपरी उच्छृङ्खलता का स्पष्टीकरण इस प्रकार किया जा सकता है कि साधारणतया किसी शास्त्र के विस्तृत सिद्धान्त उन सिद्धान्तों से नहीं निकाले जाते हैं जिनको मूलसिद्धान्त कहा जाता है । न उनका अस्तित्व ही मूल सिद्धान्तों पर निर्भर रहता है। यदि ऐसा न होता तो वीज गणित से अधिक सन्दिग्ध तथा अपरियाप्त निष्कर्ष वाला कोई और शास्त्र नहीं होता क्योंकि वीज गणित का कोई भी असन्दिग्ध सिद्धान्त उन सिद्धान्तों से नहीं निकला है जो साधारणतया विद्यार्थियों को उसके मूल सिद्धान्त बताये जाते हैं। ये मूल सिद्धान्त-बीजगणित के बहुत से लब्ध प्रतिष्ठ शिक्षकों की व्याख्या के अनुसार-अंग्रेज़ी कानून शास्त्र के समान कल्पनात्मक तथा ईश्वर विद्या (Theology) के समान रहस्यमय हैं। वे सच्चाइयां, जिनको अन्त में किसी शास्त्र के मूल सिद्धान्तों के रूप में स्वीकार किया जाता है, वास्तव में उस शास्त्र के प्रारम्भिक विचारों के अध्यात्मिक वैयधिकरण का परिणाम