है कि उसके सामने न्याय या इन्साफ़ के साधारण सिद्धान्तों को ताक़े पर रखना पड़ता है, उदाहरणतः जान बचाने के लिये आवश्यक भोजन या औषधि को चुराया या ज़बरदस्ती छीन लेना अथवा एक मात्र प्रशंसापत्र प्राप्त डाक्टर को ज़बरदस्ती भगा-- लाना या उसे इलाज करने के लिये विवश करना केवल अनुमत ही नहीं वरन् कर्तव्य हो सकता हैं। ऐसे अवसरों पर हम किसी चीज़ को, जो पुण्य या गुण ( virtue ) नहीं है, न्याय या इन्साफ़ नहीं कहते। हम साधारणतया यह नहीं कहतें हैं कि किसी दूसरे नैतिक सिद्धान्त के कारण न्याय को ताक़ पर रखना चाहिये वरन् कहते हैं कि जो बात साधारण दशा में न्याय-युक्त होती है इस विशेष स्थिति में उस दूसरे सिद्धान्त के कारण न्याय-युक्त नहीं रहती। भाषा का इस प्रकार प्रयोग करने के कारण न्याय या इन्साफ़ की नित्यता में भेद नहीं पड़ता और हम को यह प्रतिपादित करने की आवश्यकता नहीं पड़ती कि अन्याय या बे इन्साफ़ी प्रशंसनीय भी हो सकती है।
यह बात सदैव प्रत्यक्ष रही है कि न्याय-युक्त कार्य मसहलत के काम भी होते हैं। भेद यह होता है कि न्याय-युक्तता के साथ एक विशेष भाव ( Sentiment ) होता है जो उसे मसलहत से पृथक् करता है।
यदि इस विशेष भाव का कारण पूर्ण रूप से प्रतिपादित कर दिया गया है, यदि इस भाव की कोई विशेष उत्पत्ति मानना आवश्यक नहीं है, यदि यह भाव बुरा मानने का प्राकृतिक भाव है तथा सामाजिक भलाई के अनुसार होने के कारण आचार-युक्त है, यदि यह भाव न्याय-युक्तता से सबन्ध