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न्याय से सम्बन्ध

हैं, केवल मस्लहत के विरुद्ध ही नहीं समझी जाने लगती हैं वरन् अन्याय समझी जाने लगती हैं। मनुष्य इस बात पर आश्चर्य करने लगते हैं कि किस प्रकार मनुष्यों ने इस अन्याय को बर्दाश्त कर लिया होगा, किन्तु यह बात भूल जाते हैं कि स्यात् वे भी मस्लहत के वैसे ही भ्रमात्मक विचार में पड़े हुवे बहुत सी अन्य असमानताओं को बरदाश्त कर रहे हैं। ठीक हो जाने पर ये असमानतायें भी उन्हें उन्हीं असमानताओं के समान, जिनको निन्दनीय समझना उन्होंने सीख लिया है, घृणित मालूम पड़ने लगेंगी। समाज सुधार का समग्र इतिहास परिवर्तनों से भरा पड़ा है। वही रिवाज या संस्था जो आरम्भ में सामाजिक अस्तित्व के लिये आवश्यक समझा जाता था बाद में अन्याय तथा अत्याचार समझा जाने लगता है और इस बात की आवश्यकता अनुभव होने लगती है कि उस रिवाज या संस्था का स्थान किसी दूसरे रिवाज या संस्था को दिया जाय। गुलामों और स्वतन्त्र मनुष्यों के भेद, सरदारों तथा नौकरों ( Servants ) के भेद तथा उच्च वंश वालों तथा निम्न वंश वालों के भेद के सम्बन्ध में ऐसा ही हुवा है तथा आगे भी ऐसा ही होता रहेगा। रंग, जाति तथा स्त्री-पुरुष के भेद के सम्बन्ध में अब भी कुछ २ ऐसा ही हो रहा है।

जो कुछ कहा गया है उस से प्रमाणित होता है कि न्याय या इन्साफ़ कतिपय नैतिक अावश्यकताओं का नाम है जिनका पलड़ा कुल मिलकर सामाजिक उपयोगिता की तराज़ू भारी है और जो इस कारण अन्य नैतिक कर्तव्यों की अपेक्षा अधिक मान्य हैं। नि:स्सन्देह कभी २ ऐसा अवसर हो सकता है जब कोई और सामाजिक, कर्तव्य इतना महत्त्व-पूर्ण हो जाता