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पांचवां अध्याय

या व्युत्पन्न सिद्धान्तों का तर्क शास्त्रीय उप-सिद्धान्त मात्र नहीं है। यह सिद्धान्त उपयोगिता या अत्यधिक सुख के सिद्धान्त के अर्थ ही में घुसा हुवा है। जब तक कि यह न माना जाय कि प्रत्येक मनुष्य का सुख, समान अंश में ( सुखों की भिन्नता का उचित विचार रखते हुये ), बिल्कुल इतना ही गिना जायगा जितना दूसरे मनुष्य का सुख, यह सिद्धान्त सहेतुक अर्थ विहीन शब्दों का रूप-मात्र रह जाता है। इन शर्तों के पूरा होने पर बैन्थम का वचन--–प्रत्येक मनुष्य को एक गिनना चाहिये, किसी को एक से अधिक नहीं---उपयोगिता के सिद्धान्त के नीचे व्याख्यात्मक भाष्य के रूप में लिखा जा सकता है। आचार-शास्त्री तथा क़ानून बनाने वाले की दृष्टि में सुख के सम्बन्ध में प्रत्येक मनुष्य का बराबर दावा होने के साथ २ प्रत्येक मनुष्य का सुख के सब साधनों के विषय में भी बराबर दावा हो जाता है। उस समय की बात को छोड़ दीजिये जब कि मानुषिक जीवन की अनिवार्य दशाओं तथा जन साधारण के हित की दृष्टि से, जिस में प्रत्येक मनुष्य का हित शामिल है, इस सिद्धान्त को सीमा-बद्ध करना पड़ता है। इन सीमाओं की ख़ूब अच्छी तरह से व्याख्या होनी चाहिये। न्याय के अन्य सब सिद्धान्तों के समान इस सिद्धान्त का भी सब स्थानों पर प्रयोग आवश्यक नहीं है। किन्तु जहां कहीं भी इस सिद्धान्त का प्रयोग उचित समझा जाता है, यह सिद्धान्त न्याय का आदेश माना जाता है। यह माना जाता है कि सब मनुष्य समाज बर्ताव के अधिकारी हैं सिवाय उस समय के जब कि किसी मानी हुई ( Recognised ) सामाजिक मस्लहत के कारण इसके विपरीत करना आवश्यक होता है। इस कारण जब मनुष्य समान बर्ताव के अधिकारी हैं तो तमाम सामाजिक असमानतायें, ओ मस्लहत नहीं समझी जाती