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न्यूनाधिक भाव-जितने मनुष्य-प्रकृति में होने संभव हों-ऐसे मनुष्यों को भी सार्वजनिक सुख के सिद्धान्त के अनुसार कार्य करने के लिये विवश करेंगे।

उपयोगितावाद के चौथे अध्याय में मिल ने इस सिद्धान्त की पुष्टि में प्रमाण दिये हैं। यह बात तो सब को माननी होगी कि विज्ञान तथा शास्त्र के मूल पूर्वावयव (First Premises) हेतु देकर प्रमाणित नहीं किये जा सकते। किंतु मूल सिद्धान्तों का वास्तविकता को परखने वाली शक्तियों अर्थात् ज्ञानेद्रियों तथा आंतरिक चेतना के द्वारा ही निर्णय किया जा सकता है।

उपयोगितावाद का सिद्धांत है कि सुख इष्ट है तथा उद्देश्य की दृष्टि से एक मात्र सुख ही इष्ट है। अन्य सारी वस्तुएं इस उद्देश्य-प्राप्ति में सहायक होने के कारण ही इष्ट हैं। जिस प्रकार किसी ध्वनि के श्रोतव्य होने का एक मात्र यही प्रमाण दिया जा सकता है कि आदमी वास्तव में उसे सुनते हैं, इस ही प्रकार उपयोगितावाद की पुष्टि में यही प्रमाण दिया जा सकता है कि मनुष्य वास्तव में सुख चाहते हैं तथा सुख आचारयुक्तता का एकमात्र निर्णायक है।

मनुष्य सुख क्यों चाहते हैं? इस का एक मात्र प्रमाण यही दिया जा सकता है कि सुख अच्छा है। प्रत्येक मनुष्य का सुख उस के लिये अच्छा है। इस कारण सर्व साधारण का सुख सब मनुष्यों के समाज के लिये अच्छा है। सुख आचार का एक उद्देश्य है। इस कारण आचार-युक्तता का एक निर्णायक है। यहां तक तो साफ़ बात है किन्तु केवल इतने ही से काम नहीं चलता। उपयोगितावाद को प्रमाणित करने