युक्ति-संगत प्रतीत होते हैं। जब तक इन प्रश्नों पर केवल न्यायसंगत या उचित होने की दृष्टि से विचार किया जायगा और न्याय के उन आधारभूत सिद्धान्तों पर ध्यान न दिया जायगा जिन पर न्याय की प्रमाणिकता निर्भर है तो मेरी समझ में नहीं आता कि उपरोक्त तीनों मतों में से किसी एक मत का खण्डन किस प्रकार किया जासकता है। तीनी मतों ने न्याय का सर्वसम्मत भिन्न २ आशय लिया है। पहिला मत कहता है कि यह मानी हुई बात है कि दूसरे आदमियों के भले के लिये किसी व्यक्ति की बिना उसकी इच्छा के कुरबानी करना अन्याय है। दूसरे मत का कहना है कि यह बात मानी हुई है कि आत्म-रक्षा का ध्यान न्याय-संगत है और यह अन्याय है कि किसी मनुष्य को उसकी इच्छा के विरुद्ध यह मानने के लिये विवश किया जाय कि अमुक काम उस के लिये हितकर है। ओवेन के अनुयायियों का कहना कि यह मानी हुई बात है कि किसी मनुष्य को ऐसे काम के लिये, जिसका वह ज़िम्मेदार नहीं है, दण्ड देना अनुचित है। इन तीनों मतों में से प्रत्येक मत उस समय तक अखण्डनीय रहेगा जबतक कि उस मत के अनुयायियों को न्याय के उस उसूल के अतिरिक्त, जिस को उन्हों ने मान रक्खा है, किसी और उसूल को मानने के लिये विवश न किया जायगा। जब तक भिन्न २ उसूल रहेंगे, प्रत्येक मत अपने दावे के सबूत में बहुत कुछ कह सकेगा, प्रत्येक मत को अपनी ही न्याय की कल्पना स्थिर रखने के लिये न्याय की अन्य कल्पनाओं को, जो उसकी कल्पना के समान ही प्रमाणिक हैं, कुचलना पड़ेगा। यह कठिनाइयां हैं। सदैव से तत्त्वज्ञानियों ने इन कठिनाइयों को अनुभव किया है। इन कठिनाइयों से बचने की बहुत सी युक्तियें भीं सोची हैं। किन्तु उन युक्तियों से कठिनाइयां दूर नहीं होतीं, केवल उन का रुख़
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पांचवां अध्याय