द्वारा दिलवाये। हम इस बात को प्रमाणित करने के लिये, कि अमुक वस्तु पर अमुक व्यक्ति का अधिकार नहीं है, इस बात को प्रमाणित करते हैं कि समाज को उस वस्तु को उस व्यक्ति को दिलाने का प्रबन्ध नहीं करना चाहिये किन्तु उस वस्तु की प्राप्ति को उस व्यक्ति के भाग्य या उद्योग पर छोड़ देना चाहिये। इस प्रकार हम कहते हैं कि प्रत्येक मनुष्य को अधिकार है कि किसी व्यवसाय में इमान्दारी के साथ स्पर्धा अर्थात् मुकाबिला करता हुवा जितना कमा सके कमाये क्योंकि समाज को नहीं चाहिये कि वह उस आदमी को ईमान्दारी के साथ यथाशक्ति कमाने से रोके। किन्तु उस आदमी को यह अधिकार नहीं है कि वह ३००) मासिक कमायेगा, चाहे वह इतना कमा रहा हो क्योंकि समाज इस बात की ज़िम्मेदार नहीं है कि वह ३००) अवश्य कमाये। इस के विपरीत यदि उस के पास तीन प्रतिशत व्याज का १० सहस्र पौण्ड का स्टाक अर्थात् कम्पनी कागज़ है तो उस का अधिकार है कि वर्ष भर में उसे ३०० पौन्ड मिले क्योंकि समाज पर ज़िम्मेदारी आजाती है कि वह उस को उसके मूलधन पर इतने पौण्ड की आय करावे।
इस प्रकार मेरा विचार है कि अधिकार रखने का मतलब किसी ऐसी चीज़ को रखना है जिस को क़ब्ज़े से बाहर न जाने देना समाज का धर्म है। यदि कोई आक्षेप करने वाला मेरे से प्रश्न करे कि समाज को ऐसा क्यों करना चाहिये तो मैं इस के सिवाय कुछ उत्तर नहीं दे सकता कि सार्वजनिक हित के विचार से ऐसा करना चाहिये। यदि सार्वजनिक हित का विचार ऐसा करने के लिये काफ़ी ज़ोरदार प्रमाण नहीं मालूम पड़ता है तो उसका कारण यह है कि हमारे न्याय के भाव की नीव केवल हेतुवाद ही पर नहीं है वरन् इस भाव में पशु-प्रकृति अर्थात् बदला लेने