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पांचवां अध्याय

या सामुदायिक हित का ध्यान नहीं रखते हैं वरन् किसी व्यक्ति का ख्याल करते हैं। किन्तु इस प्रकार का कथन इस सिद्धान्त के विरुद्ध कोई आक्षेप नहीं है। बेशक साधारणतया मनुष्यों को इस कारण क्रोध आता है कि उन्हें कष्ट पहुंचा है। किन्तु वह मनुष्य, जिस में इस प्रकार के क्रोध का भाव नैतिक भाव ( Moral feeling ) है अर्थात् जो क्रोध करने से पहिले इस बात का विचार करता है कि काम निन्दनीय है भी या नहीं, चाहे प्रगट रूप से अपने दिल में यह न कहे कि मैं समाज का पक्ष ले रहा हूं किन्तु इस बात को अनुभव अवश्य करता है कि वह एक ऐसे नियम का पालन कर रहा है जो उस के तथा समाज के लिये हितकर हैं। यदि वह इस बात का अनुभव नहीं करता है अर्थात् यदि वह केवल इस ही बात का विचार करता है कि उस कार्य का उस पर क्या प्रभाव पड़ता है तो वह मनुष्य इस बात को नहीं जानता कि मैं सत्य पर हूं या नहीं। ऐसा मनुष्य अपने कार्यों के उचित या अनुचित होने का विचार नहीं करता है। इस बात को उपयोगितावाद के विरोधी आचार शास्त्रियों ने भी माना है। जब कान्ट ( जैसा कि पहिले भी लिखा जा चुका है ) आचार नीति का मुख्य सिद्धान्त यह बताता है कि इस प्रकार आचरण करो कि जिस से तुम्हारे आचरण के नियम को सब सहेतुक धर्मवादी ( Rationalists ) क़ानून मान लें तो वह वास्तव में इस बात को मान लेता है कि जब कोई व्यक्ति किसी कार्य के आचार-युक्त होने का निर्णय करता है तो उस के दमाग़ में मनुष्य जाति या समाज का ख्याल रहना चाहिये। यदि कान्ट का यह आशय नहीं है तो उस का कथन निरर्थक है। भला यह कैसे हो सकता है कि बिल्कुल ख़ुदग़र्ज़ी से भरे हुवे नियम को सारे सहेतुक धर्मवादी