सब वस्तुवें सुख का साधन होने के कारण ही इष्ट हैं। इस प्रकार उपयोगितावाद का सिद्धान्त प्रमाणित हो जाता है। इस के अतिरिक्त उपयोगितावद की पुष्टि में और कोई प्रमाण नहीं दिया जा सकता और न कोइ प्रमाण देने की आवश्यकता ही है।
"प्रत्यक्षं किं प्रमाणम्'
प्राचीन काल से उपयोगिता या सुख को आचार-शास्त्र की कसौटी मानने में एक बड़ी रुकावट यह रही है कि बहुत से मनुष्यों के दिल में यह शङ्का बनी रहती है कि कहीं इस सिद्धानत को आचार-शास्त्र की कसौटी मानना न्याय-विरुद्ध तो नहीं है उपयोगितावाद के पांचवें अध्याय में मिल ने इस ही शङ्का को दूर करने का प्रयत्न किया है तथा बहुत ही योग्यता पूर्वक अनेक अकाट्य युक्तियां देकर प्रमाणित किया है कि न्याययुक्तता (justice) का आधार ही मुख्यतया उपयोगिता है तथा न्याय युक्तता कतिपय उन आचार-विषयक नियमों का नाम है जिनका मानुषिक भलाई की प्रधान बातों से सम्बन्ध है और जो इस कारण बिना और किसी बिचार के आचार विषयक साधारण नियमों से अधिक मान्य हैं।
उमराव सिंह कारुणिक बी. ए.