का रूप धारण कर लेता है अर्थात् प्रत्यक्ष में यह मालूम पड़ता है कि इस दावे का आधार अन्य बातों का ख्य़ाल नहीं है। यदि न्याय का उपरोक्त विश्लेषण या स्पष्टीकरण न्याय की कल्पना का ठीक वृत्तान्त नहीं है---यदि न्याय का उपयोगिता के विचार से कुछ सम्बन्ध नहीं है, यदि न्याय ऐसा आदर्श हैं जिस को मस्तिष्क अपने ही अन्दर दृष्टि डाल कर जान सकता है--तो समझ में नहीं आता कि यह आन्तरिक आदेश कर्ता ( inner oracle ) इतना सन्दिग्ध क्यों है? क्यों बहुत सी बातें एक प्रकार से विचार करने से उचित मालूम पड़ती है और फिर दूसरी प्रकार से विचार करने से वे ही बातें अनुचित मालूम पड़ती हैं।
हम से बार २ कहा जाता है कि उपयोगिता का आदर्श अनिश्चित है। प्रत्येक मनुष्य भिन्न २ प्रकार से अर्थ लेता है इस कारण न्याय के आदर्शों का पालन उचित है जो नित्य ( Immutable), अनिवार्य ( Ineffaceable ) तथा भूल से मुक्त (Unmitsakable ) है तथा जो अपने प्रमाण स्वयं है और जिन पर लोकमत के परिवर्तन का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। इस कथन से स्यात् कोई कल्पना करे कि न्याय से संबन्ध रखने वाले प्रश्न निर्विवाद हैं तथा यदि हम 'न्याय' को अपने आचरण का नियम बनालें तो प्रत्येक आचार के ठीक बे ठीक होने का निर्णय ऐसे असिन्दिग्ध रूप से होगा जैसे किसी गणित के प्रश्न के उत्तर के ठीक या गलत होने का निर्णय हो जाता है। किन्तु यह बात बिल्कुल गलत है। जितना विवादात्मक यह विषय है कि समाज के लिये क्या हितकर है और क्या अहितकर, उतना ही विवादात्मक यह विषय है कि क्या