प्रयत्न करें। इस दशा में भलाई करने का यथा शक्ति प्रयत्न कृतज्ञता-प्रकाशन का रूप ग्रहण कर लेता है। यह दोनों बातें अर्थात् ऋण का चुकाना तथा कृतज्ञता-प्रदर्शन न्याय के अन्तर्गत हैं। न्याय या इन्साफ़ के साथ अधिकार लगा हुवा है परोपकार के साथ अधिकार-प़ात्रता का प्रश्न नहीं है। जो न्याय अर्थात् इन्साफ़ तथा साधारण आचार नीति में यह भेद नहीं मानता वह दोनों को गडमड कर देता है।
इस बात को मालूम करने के बाद कि न्याय का विचार किन २ भिन्न २ तत्वों से बनता है हम को यह बात मालूम करने का प्रयत्न करना चाहिये कि जो भावना इस विचारज्ञके साथ उठती है वह कोई विशेष नैसर्गिक देवाज्ञा है या यह भावना कतिपय ज्ञात नियमों के अनुसार इस विचार ही से विकसित हुई है और विशेषतया क्या इस प्रकार की भावना मस्लहत के विचार से उत्पन्न हो सकती है?
मेरा विचार है कि 'न्याय' का भाव ( Sentiment ) किसी ऐसी चीज़ से उत्पन्न नहीं होता जिस को हम साधारणतया या ठीक तौर से मस्लहत का विचार कह सकते हों; किन्तु 'न्याय' या 'इन्साफ़' के विचार में जो कुछ आचाग्युक्तता वह मसलहत के विचार से उत्पन्न हुई है।
हम प्रमाणित कर चुके हैं कि 'न्याय' की भावना के दो मुख्य अवयव ( Ingredienis ) ये हैं---उस मनुष्य को दण्ड देने की इच्छा जिस ने हानि की है तथा इस बात का ज्ञान या विश्वास कि कोई मनुष्य या कुछ मनुष्य ऐसे हैं जिन को हानि पहुंची है।