मनुष्य के साथ दूसरे मनुष्यों की अपेक्षा अच्छा बर्ताव करने से भी अन्याय हो सकता है। किन्तु इस दशा में हानि उस मनुष्य के प्रतिद्वन्दियों को पहुंचती है। मेरी समझ में यह बात अर्थात् नैतिक कर्तव्य के साथ २ किसी मनुष्य में अधिकार का होना--न्याय तथा उदारता या परोपकार का विशेष भेद है। न्याय से केवल उसी बात का आशय नहीं होता है जिस का करना ठीक है और जिस का न करना गलत है वरन् न्याय से उस चीज़ का आशय होता है जिस का दावा और कोई आदमी अपना नैतिक अधिकार बताकर हम पर कर सकता है। हमारी उदारता या हमारे परोपकार का पात्र बनने का किसी को नैतिक अधिकार नहीं है, क्योंकि हम पर कोई नैतिक बन्धन नहीं है कि हम किसी विशेष व्यक्ति के प्रति उदारता दिखायें या उस का उपकार करें। जो उदाहरण इस ठीक परिभाषा के प्रतिकूल मालूम पड़ते हैं वे ऐसे उदाहरण हैं जो इसके बहुत ही अधिक अनुकूल हैं। यदि कोई आचार शास्त्री इस बात कों प्रतिपादित करने का प्रयत्न करता है--जैसा कि कुछ आचार शास्त्रियों ने किया भी है--कि यदि कोई विशेष व्यक्ति नहीं तो भी कुल मिलकर मनुष्य जाति तो उस सब भलाई की अधिकारी है जो हम कर सकते हैं--तो वह तत्क्षण ही अपने पूर्व पक्ष में उदारता तथा उपकार को न्याय के साथ सम्मिलित कर देता है। वह यह कहने के लिये विवश होता है कि यथा शक्ति प्रयत्न द्वारा हम समाज के भृण से उभृण हो सकते हैं। इस प्रकार हमारा यथा शक्ति भलाई करने का प्रयत्न करना ऋण चुकाने के समान हो जाता है। या वह यह भी कह सकता है कि जो कुछ समाज हमारे लिये करता है उस का बदला इस से कम कुछ नहीं हो सकता कि हम समाज की भलाई का यथा शक्ति
पृष्ठ:उपयोगितावाद.djvu/१११
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
११३
पांचवां अध्याय