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पांचवां अध्याय

मनुष्य को कर्तव्य-पालन करने के लिये वास्तव में विवश न करें। किन्तु यह बात माफ़ तौर से समझी जाती है कि यदि हम उस मनुष्य को कर्तव्य पालन के लिये विवश करेंगे तो उस मनुष्य को शिकायत का कोई अधिकार न होगा। इस के विपरीत बहुत सी ऐसी बातें भी हैं जिन को हम चाहते हैं कि और आदमी करें तथा हम उन बातों को करने के लिये करने वालों को पसन्द करते हैं या उनकी प्रशंसा करते हैं; किन्तु फिर भी हम यह मानते हैं कि वे आदमी ऐसा करने के लिये विवश नहीं हैं अर्थात् ऐसा करना उनका नैतिक कर्तव्य ( Moral obligation ) नहीं है। ऐसा न करने के कारण हम उन की निन्दा नहीं करते अर्थात् हम इस बात के लिये उन को दण्ड का उचित पात्र नहीं समझते। दण्ड के उचित पात्र होने या न होने का बिचार कैसे उत्पन्न हुवा--इसका पता स्यात् भागे चलकर चलेगा; किन्तु मेरा ख्य़ाल है कि निस्सन्देह ठीक या बे ठीक अर्थात् गलत' की कल्पना की तह में यह भेद ही काम कर रहा है। हम किसी अचरण को उम सीमा तक ग़लत समझते हैं या किसी अन्य प्रकार से अपनी अस्वीकृति देते हैं, जिस सीमा तक हम यह समझते हैं कि उक्त काम के लिये दण्ड मिलना चाहिये या नहीं। हम कहते है कि ऐसा २ करना ठीक होगा या केवल प्रशंसनीय होगा जब कि हमारी इच्छा होती है कि ऐसा करने के लिये उस मनुष्य को, जिस का इस कार्य से संबन्ध है, इस प्रकार करने के लिये विवश किया जाये, प्रलोभन दिया जाय या ज़बरदस्ती की जाय।

उपरोक्त बात साधारण आचार नीति तथा मसलहत और प्रशंसनीयता ( Worthiness ) का भेद बताती है। अभी न्याय