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पांचवां अध्याय

अपवादरूप हैं नियम नहीं। यदि कोई मनुष्य अच्छी नौकरी देने में अपने सम्बन्धियों तथा मित्रों को अजनबियों पर तरजीह देता है और ऐसा करने में अपने किसी दूसरे कर्तव्य से च्युत नहीं होता तो ऐसा करने में कोई हर्ज नहीं है। बल्कि तरजीह न देने की दशा ही में निन्दा होने की अधिक सम्भावना है। किसी विशेष मनुष्य को अपना मित्र, सम्बन्धी या साथी बनाना कोई भी अनुचित या अन्याय नहीं समझता है। जहां अधिकारों का प्रश्न है वहां पर निष्पक्षपात होना बेशक कर्तव्य है। किन्तु निष्पक्षपात होना इस बात के अन्तर्गत आ जाता है कि प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि दूसरे को उस का अधिकार दे। उदाहरणत: न्यायाधीश को पक्षपात हीन होना चाहिये क्योंकि उस का कर्तव्य है कि किसी विवाद-ग्रस्त वस्तु को दोनों पार्टियों में से किसी पार्टी को बिना किसी अन्य प्रकार का ख्याल किये, उस के अधिकारी को देदे। बहुत सी ऐसी अवस्थायें हैं जहां पर निष्पक्षपात होने का अर्थ एक मात्र अधिकार का ध्यान रखना है। उदाहरणतः न्यायाधीशों, शिक्षकों, माता-पिताओं तथा शासकों को सज़ा या इनाम देने में निष्पक्षपात होना चाहिये। कतिपय अवस्थाओं में निष्पक्षपात होने का अर्थ यह भी है कि एक मात्र सार्वजनिक हित का ध्यान रक्खा जाय, उदाहरणतः सरकारी नौकरी के लिये उम्मैदवार चुनने में। संक्षेप यह कि न्याय अर्थात् इन्साफ की दृष्टि से निष्पक्षपात होने का आशय यह है कि जिस स्थान पर जिन बातों को ध्यान में रखना आवश्यक समझा जाता है वहां पर उन्हीं बातों को ध्यान में रख कर काम करे।