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पन्द्रहवा परिच्छेद ।

इस पर वे तुरंत ही राज़ी हो गये। उन का डेरा शिमला महल में पालदी था, उन की गाड़ी तो खड़ी थी और प्यादे भी सोये हुए थे। बस फिर हम धीरे से दरवाजा खोल गाड़ी पर जा बैठे। उन के डेरे पर जाकर देखा कि को मंजिला मकान है। एक घर में मैं पहलेही घुस गई। और जातेही भीतर से मैं ने दरवाजा बंद कर दिया और मेरे प्राणनाश बाहर ही पड़े रहे।

उन्हो ने बाहर ही से बहुतेरी विनती की पर मैं ने हंस के कहा—"अब जो श्राप की दासी हो चुकी, कि तुख श्राप को प्रति हे अशा कल सवेरे तक रहना है की नहीं। यदि कल भी ऐसा देखूंगा तो फिर श्राप के बस श्राप यहीं तक।"

निदान मैं ने द्वार नहीं ही खोला, तब बेचारे लाचार होकर दूसरे घर में सो रहे। जेट होने को बानी गर्मी में मयाजा या व्याकुहा रोगी को स्वच् और शंभल अशा शयनार पर बैठा का संह बांदा कि जिस प्रह न पोटके, तो बताओ कि ज ड की साह बढ़ेगा

दिल मने पर मैंने अपने मोठे शादळज़ा खोला, देखा कि प्रासन द्वार पर कर रहे हैं। मैं अपने हाथ में उल का हाथ लेकर कहा - "भारदार ! या आप जुले रामरामइत्त के घर पहुचा , नही तो आज से 3 दिन का मुझ से बात भी न करें। बस बेहो भाठ दिनप की दरका के लिये हैं। "श सुन्न उन्होंने आठ दिन को पानी स्वीकार को।