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चौदहवां परिच्छेद।

वेसे ही विचार कर हुआ; नहीं तो ऐसा होने पर आप की स्त्री का पता लगे तो फिर दोनो सौतिन में ठायं ठायं हो।”

यह सुन उन्होंनें मुस्कुरा कर कहा―“सो डर नहीं हैं। उस स्त्री के पाने पर भी अब हम उसे ग्रहण नहीं कर सकते। क्योंकि अब उस की जातपांत का क्या ठिकाना?”

यह सुनतेही मेरे सिर पर बजू घहरा बड़ा, और सरी आज्ञा निर्मुल हो गई। तब तो ये मेरा परिचय पाने पर मुझे अपनी स्त्री जान कर ही ग्रहण न करेंगे! हाय! इस बार मेरा जन्म ही व्यर्थ हुआ।

फिर साहस कर के मैंने पुछा―“यदि अब उनसे देखा देखी हो तो क्या करिवेगा?”

इस पर उन्होंने बिना संकोच ही कह डाला कि―“उसे त्याग देंगे।”

ऐसे निर्दयी? हाय! यह सुनते ही मैं काठ हो गई। पृथ्वी मेरी आँखो के आगे घूमने लगी।

उसी रात को मैंने अपने पति की मेज पर बैठ कर उस की मनोहर मूर्ति को देखते देखते प्रतिज्ञा की कि―“या तो ये मुझे आपनी स्त्री जान कर ग्रहण करेंगे, और नहीं तो मैं अपनी जान दे दूंगी।”

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