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चौदहवां परिच्छेद।

तो यह है कि वे अपनी ही मनमोहनी छटा छिटका कर घर को उंजाला किये हुए थे। मैं भी घायल हो रही थी और मारे आनन्द के फूली अंगों नहीं समाती थी।

यौवन के पाने पर मेरा यही पहिले पहिले पति से बोलना था। पर उसमें कैसा वा कितना सुख था सो क्यों कर बतलाऊं? मैं बड़ी मुखरा थी, किन्तु जब पहेले उन के साथ बातें करना चाहा तो किसी तरह भी मुंह न खुला। मेरा गला बंद हुआ जाता था, सब अंग कांपता था, कलेजा धकधक करनेलगा और जीभ सूखी जाती थी। तो जब बोला न गया तो मैंने रो दिया।

पर उस आंसू के भेद को वे न समझ कर कहने लागे―“रोती क्यों हो? मैंने तो तुम्हें बुलाया नहीं है, तुम आपही आई हो, तब रोती क्यों हो?”

इस कठोर वचन को सुन कर मेरे कलेजे में बड़ी चोट लगी। वे मुझे कुलटा समझते हैं―इस से मेरी आंखों की धारा और भी बढ़ी। मन में सोचा कि अभी अपना परिचय दूं―क्योंकि अब यह पीड़ा नहीं सही जाती। किन्तु उसी समय यह बात ध्यान में आई कि यदि परिचय देने पर ये मेरी बातों का विश्वास न करें और यदि मनही मन यों समझें कि “इस का घर भी कालीदीधी है, सो अवश्य इसने मेरी स्त्रो के डांकुओं के हाथ पड़ने का हाल सुना होगा, इसी लिये सब दौलत की आशा से अपने तई झूठ मूठ मेरी स्त्री बतलाता है―“यदि ऐसाही ये समझ लें तो फिर क्यों कर इन्हें विश्वास दिलाऊंगी? यही समझ कर मैं ने अपना परिचय न दिया। और लंबी सांस ले आँसू पोछ उन के साथ