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द्वितीय परिच्छेद ।

आते जाते हैं। घाट के रास्ते पर केवल एक दुकान भर है और समीप जो ग्राम है, उस का नाम भी "कालादीघी" है।

उस बापो पर लोग अकेले जाने में भय खाते, डांकुओं के भय से वहां पर बिनि दल बांधे लोग न जाते, इसी लिये लोग उसे "डांकुओं की कालादीघी" और वहां के दुकानदार को डांकुओं का सहायक कहते थे। पर मुझे इन सबों का भय न था, क्योंकि मेरे संग अनेक आदमी थे—जिन में सोलह कहार, चार प्यादे और दूसरे कई लोग थे।

जब हमलोग वहा पहुंचे, उस समय ढाई पहर दिन बीता था, बाहकों ने कहा कि, " हमलोग बिना कुछ जलपान किये, अब नहीं चल सकते, "प्यादों ने मना किया और कहा कि,— "यह अच्छा स्थान नहीं है" इस पर कहारों ने उत्तर दिया कि,—" हमलोग इतने आदमी है, फिर हमलोगों को भय क्या है ? " मेरे साथ के आदमियों में से तब तक किसी कुछ भी खाया नहीं था, इस लिये अन्त में सबों ने बाहकों की बात सकारी।

दीघी के घाट पर बट की छाया में मेरी पालकी रक्खी गई मैं जल भुन गई—क्योंकि कहां तो मैं देवता पितह मना रही थी कि जल्दी पहुंचूं और कहां निगोड़े कहार पालकी रख बैठ गये और ठेहुना उधार के मैले अंगोछे को घुमा २ कर हवा खाने हो ! किन्तु छि: ! स्त्री जाति अपना ही स्वार्थ देखती है ! देखो! मैं जाती हूँ कंधे पर चढ़ी हुई, और ये बेचारे मुझे कंधे पर ढोये आते हैं, मैं जाती हूँ चढ़ो जवानी में प्राणपति से मिलने और