मैंने कहा―भई! यह तो लौड़ीयना है, सो दाईपने की मुझ मैं कहां तक विद्या है, क्या उसी का परिचय देने के लिये मैंने आज उन्हें अंटका रक्खा है?
सुभाषिणी ने कहा―हम लोग अपने पति की दासी नहीं हैं, तो क्या है?
मैंने कहा―जब उन की प्रीति मुझ में होगी, तब हासीपना किया जा सकेगा। तब पंखा भी झलूंगी, पांव भी दाबूंगी, पान भी लगा दूंगी और तंबाकू भी भर दूंगी; पर अभी करने की वे सब बातें नहीं है।
तब हंसती हंसती सुभाषिणी मेरे पास सरक बैठी और मेरे हाथ को अपने हाथ में ले कर मीठी मीठी गप्प करने लगी। पहिले पहिले, हंसती हंसती, पान चाभती चाभती, कान की बाली हिलाकर उसने जैसा रंग पकड़ा था, उसी के अनुसार वह बातें करने लगी। पर बातें करते करते बह (पुरुष का) भाव भूल गई और सखी भाव ही से बातें करने लगी। मैं जो चली जाऊंगी इस की बात उस ने छेड़ी। उस की आंखों में आंसू की बूंदे भी छलकने लगी। तब उस के मन बदलाने के लिये मैं ने कहा―
“सखी, जो कुछ तुम ने सिखलाया, यह सब स्त्रियों का मन्त्र सो है, किन्तु अभी उ० बाबू के ऊपर क्या यह सोट कर सकेगा?”
तब सुभाषिणी ने हंस कर कहा―“तो मेरा ब्रह्मास्त्र सीख ले।”