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इन्दिरा।

सुभाषिणी―“अच्छा, पहिले तेरा घर तो बसे, फिर पीछे तू घर में आग लगा दीजो! अभी इन सब बातों को रहने दे और किस तरह दुलहे के मन को वश में करेगो इस बात का एग़ज़ामिन तो दे? नहीं तो तेरा निस्तार नहीं है।”

यह सुन मैं ने ज़रा घबड़ा कर कहा―“इस विद्या को तो मैंने कभी सोचा ही नहीं!”

सुभाषिणी―तो मुझ से सीख ले, यह तो तू जानती है न, कि मैं इस शास्त्र में पंडिता हूं।

मैं―हां! सो तो देखती ही हूं।

सुभाषिणी―तो सीख, थोड़ी देर के लिये मान ले कि तू पुरुष है, और मैं क्योंकर तेरे मन को फांसती हूं।

यों कह कर उस मुंहझौंसी ने ज़रा सा घुंघट काढ़ कर और अपने हाथ से रच रच कर लगाये हुए एक बीड़ा पान ला कर मुझे खाने के लिये दिया। वैसा पान वह केवल रमण बाबू के लिये ही लगाती थी और किसी को भी कभी वह बोड़ा नहीं देती थी। यहाँ तक कि आप भी वैसी बीड़ी कभी नहीं खाती थी। फिर रमण बाबू का हुक्का वहां रक्खा था, जिस पर चिलम रक्खी हुई थी और उस में केवल राख और जराठी भरी थी, उसे लाकर सुभाषिणी मेरे सामने रख कर फूंक मार कर मानों चिलम सुलगाने लगी। इसके बाद फूल के पंखे को हाथ में ले वह मुझे हवा करने लगी, जिस से हाथ को चूड़ी और कंगनों की बड़ो मीठो झनझनाहट निकलने लगी