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इन्दिरा।

चिठ्ठा लिखकर मारे लज्जा के ऐसा जी में आया कि पोखरी के जल में डूब मरूं या अंधेरे में लुक रहूं। पर क्या करती? विधाता ने मेरा भाग्य ही ऐसा बनाया था। जान पड़ता है कि और कभी किसी कुलवती नारी की ऐसी दुर्दशा भोजनी नहीं पड़ी होगी।

काग़ज़ मोड़माड़ कर हारानी को दिया और कहा―“ज़रा ठहर जा।” यो कह, मैंने सुभाषिणी के पास जा कर कहा―“एक बार ज़रा भैया जी (रमण बाबू) को बुलातीं तो अच्छा होता, जी जी में आवे, उन से दो चार बातें कर के तब उन्हें जाने देना।” यह सुन सुभाषिणी ने वैसा ही किया। और रमण बाबू के उठ आने पर मैं ने हारानी से कहा कि,―“अब जा!" हारानी गई और कुछ देर पीछे मेरी चिठ्ठी फेर लाकर मेरे हाथ दी। उस के एक कोने में केवल इतना ही लिखा था कि,―“अच्छा।” तब मैंने हारानी से कहा कि,―“जो इतना किया है तो कुछ थोड़ा सा और भी करना पड़ेगा। आधी रात की बेला मुझे उन का सोनेवाला घर दिखला देना होगा।

हारानी―अच्छा, पर इस में कोई बुराई तो नहीं है?

मैं―रत्ती भर भी नहीं, ये मेरे किसी जन्म के दूलह हैं।

हारानी―ऐ! किसी जन्म के, या इसी जन्म के, यह बात मेरी समझ में नहीं आई।

मैंने हंस कर कहां―“चुप।”

हारानी हंस कर बोलो―“यदि इसी जन्म के हों,