आऊं?” त्योंही वे उसी झाड़ू को उठा कर कर मुझे मारने दौड़ों। अच्छा भाग्य था कि मैं भागना जानती थी इसी से भाग कर बचो। नहीं तो झाड़ू की चोट से प्राण जा चुका था, और क्या! तो भी एक भाड़ू पीठ पर बैठही तो गया―देखो तो सही दाग़ है कि नहीं?
यों कह कर उस ने हंसते हंसते अपनी पीठ मुझे दिखाई। पद झूठी बात थी―दाग़वाग कुछ भी नहीं पड़ा था―तब वह बोलो―
“अच्छा, अब क्या करवाना है, कहो, चटपट कर भाऊं।”
मैं―झाड़ू खा कर भी जायगी?
हारानी―झाडू मारा है―पर मना तो किया ही नहीं; मैं तो कह चुकी हूं कि जो वह मना न करेंगी, तो जाऊंगी।
मैं―झाड़ू मारना, क्या मना करना नहीं है?
हारानी―हां, देखो, बीबी जी! जब रानी बहू ने झाडू उठाया, उस समय उन के ओठों के कोने में ज़रासी मुस्कुराहट मैंने देखी थी। अच्छा, तो क्या करना होगा, कहो।
सब मैं ने एक टुकड़े काग़ज़ पर लिखा―
“मैं आप को अपना तनमन समर्पण कर चुकी। सो क्या, आप अपनावेंगे? यदि ग्रहण करें तो आज रात को इसे घर में शवन करें। घर का दर्वाज़ा खुला रहेगा।