तेरहवां परिच्छेद।
मुझे एक्जामिन देना पड़ा!
संध्या पीछे मेरे पति काग़ज़ात लेकर रमणबाबू के पास आये। यह ख़बर पाकर मैं फिर एक बार हारानी के गोड़मुंड पड़ी। पर उस ने वही बात कही कि, “बहू यदि मना न करें तो मैं यह काम करसकती हूं और तभी जानूंगी कि इस काम में कोई बुराई नहीं हैं।”
मैंने कहा―अच्छा जो चाहे सो कर―मैं तो चिन्ता के मारे बेचैन हूँ।
यह इशारा पाते ही हारानी ज़रा हंसती हंसती सुभाषिणी के पास दौड़ी गई! और मैं उस के लौट कर आने तक आसरा लगाये जहां की तहां बैठी रही। मैंने देखा कि वह हंसी के फुहारे छोड़ती उतावली से कपड़े सम्हालती हांफती हांफती दौड़ी हुई मेरे सामने आ खाड़ी हुई। मैंने पूछा―“क्यों री, इतनी हंसती क्यों है?”
हारानी―“बीबी! ऐसी जगह भी आदमी को ठगना चाहिये? जान जा चुका थी और क्या!”
मैं―क्या हुआ?
हाररानी―“मैं तो जानती थी कि रानी बहू के घर में झाडू नहीं रहती, क्योंकि रोज़ झाडू से जाकर हमही लोग घर बुहार आती हैं। किन्तु आज क्या देखा कि रानीबहू के हाथ के पास ही कोई रख आया है। मैंने ज्योंही जाकर कहा कि “क्या