बारहवां परिच्छेद।
हारानी की हंसी बंद!
अब यहाँ से इस इतिहास में सैकड़ोंवार अपने दूलह के नाम लेने की आवश्यकता मुझे पड़ेगी, इसलिए अब तुम पांव जभी एसीही सुन्दरी इकट्ठी हो, कमेटी करके सलाह कर के मुझे बतला दो कि मैं किस शब्द का बर्त्ताव कर के उन का नाम लूं? क्या पांच सौ वार ‘स्वामी’ ‘स्वामी’ कह कर कान की चैली उड़ादूं? या ‘जमाई बारिक’ के दृष्टान्त के अनुसार पति को ‘उपेन्द्र’ कहना प्रारम्भ करूं? अथवा ‘प्राणनाथ’ ‘प्राप्यारे’ ‘प्राणधन’ ‘प्राणकान्त’ ‘प्राणेश्वर’ ‘प्राणपति’ और ' ‘प्राणाधिरू’ की छूट मचा दूं? हाय! जो हमलोगों के सब से बढ़ कर प्यार संशोधन के पात्र हैं, जिन्हें छिन छिन में पुकारने की इच्छा होती है, उन्हें क्या कह कर पुकारूं, सो अभागे देश की भाषा में हुई नहीं। मेरी एक सहेली,(दाई नौकरों की देखा देखी) अपने दूलह को ‘बाबू’ कह कर पुकारती थी―किन्तु ख़ाली ‘बाबू’ कहते उसे मीठा नहीं लगा―इसलिये अपने मन के खेद मिटाने के लिये आज में उसने अपने पति को ‘बाबू राम’ कह कर पुकारना प्रारम्भ किया। मेरी भी इच्छा होती है कि मैं भी ऐसा ही करूं।
मांस के बर्त्तन को दूर फेंक कर मन ही मन स्थिर किया कि―“यदि विधाता ने खोये हुए धन को दिखलाया है तो फिर अब छोड़ना न चाहिये । इसलिये लड़कियों की भांति लज्जाकर के अपना सारा काम बिगाड़ना न चाहिए।”