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ग्यारहवां परिच्छेद।

है। सोई रामराम इत्त से कहा,―राम बाबू! अपनी रसोईदारिन से कहिये कि पाक बहुत ही सुन्दर, स्वादिष्ट और अपूर्व बना है।”

परन्तु राम बाबू भेद की बात तो कुछ जानते ही न थे, सो बोलें,―“हां! यह बहुत अच्छी रसोई बनाती है।”

मैं ने मन ही मन कहा―“तुम्हारा सिर पकाती हूँ।”

न्योतहारी बाबू ने कहा―“किन्तु यह बड़े अचम्भे की बात है कि आपके यहां दो एक सामग्री हमारे देश की रीति के अनुसार बनी हैं।”

इस पर मैंने मन ही मन कहा―“बस, पहचान लिया” क्योकि सचमुच दो एक जम व्यंजन मैं से अपने देश की रीति के अनुसार ही बनाये थे।

रामबाबू ने कहा―“ऐसा ही होगा। क्योंकि इस का घर इस जवार में नहीं है।”

उन्होंने यहीं पर संधि पाई और एक बार मेरे मुखड़े की और ताक कर पूछा―“क्यों जी! तुम्हारा घर कहां है?”

पहिले मैंने मन ही मन विचाह किया कि बोलू या नहीं? फिर निश्चय कर लिया कि जरूर बोलूंगी।

फिर मैं ने सोचा कि सच कहूं या झूठ? इस पर भी विचार कर लिया कि झूठ कहूंगी। क्यों ऐसा सोचा? यह बात वेही समझ सकते हैं, जिन्होंने स्त्रियों के हृदय को चातुर्यमिय और अक्रगामी बनाया है। मैंने सोच लिया कि काम पड़ने पर सच