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ग्यारहवां परिच्छेद।

जानती थी। तब दो चार बार मैं ने बूढ़ी को समझाया और कहा कि― “जरा सावधान होकर परोसो और खिलाओ”―किन्तु मारे डर के फिर पर परोसने जाने के लिये राज़ी न हुई। लाचार, मैं हाथ धो, मुंह पोछ, साफ़ हो, साड़ी समेट और जरा घूघंट काढ़ कर परोसने गई। गई सो, पर यह कौन जानता था कि ऐसा बखेड़ा उठ खड़ा होगा? यह मैं जानती थी कि―मैं बड़ी समझदार हूं पर यह नहीं जानती थी कि सुभाषिणी मुझे एकही हाट में बेंच भी सकती है और खरीद भी सकती है ।

यद्यपि मैं घूंघट काढ़े हुई थी, पर घूंघटपट से स्त्रियों का स्वभाव नहीं ढपता। सो मैं ने घूंघट के भीतर ही वे एक बार न्योते हुए बाबू को देख लिया।

देखा कि उसकी बयस लगभग तीस बरस के होगी वे गोरे रंग के और बहुत ही सुन्दर थे, जो देखने से सुन्दरियों के मन मोहनेवाले जान पढ़ते थे। मैं बिजली की चकाचौंध को भांति ज़रा दुचित्ती हो गई और मांस का बर्तन लिये जरा ठिठकी रह गई। और मैं घूंघट के भीतर से उन्हें देखती थी, इतने ही में उन्हों ने भी मुंह ऊचा किया और देख लिया कि मैं घूंघट के भीतर से उन की ओर निहार रही हूं। मैंने तो कुछ जान बूझ या इच्छा कर के उन की ओर किसी तरह का बुरा इशारा नहीं किया था, क्योकि उतना पाव इस (मेरे) हृदय में नहीं था। सो जान पड़ता है कि सांप भी जान बूझ या इच्छा कर के फन नही बठाता; और फन उठाने का समय होने पर वह (फन) आप ही आप उठ जाता है। सांप के हृदय में भी पाप न होता होगा।