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इन्दिरा।

रसोई आदि अच्छी हो―इस लिये उस के बनाने का बोझ मेरे सिर पड़ा। मैंने भी बहुत यत्न से सारी चीज़े बनाईं। भोजन का ठौर भीतर (ज़मामखाने में) ही किया गया। फिर रामबाबू, रमणबाबू और न्योतावाले अमीर ये तीनों साथही भोजन करने बैठे। उन लोगों के परोसने का भार बूढ़ी रसोई-दारिन के ऊपर दिया गया, क्योंकि मैं बाहरी लोगों को कभी नहीं परोसती थी।

बूढ़ी परोसती शी और मैं रसोईघर में थी, इतनेही में एक हल्ला मचा। रमण बाबू बुढ्ढों को फटकार रहे थे। उसी समय रसोईघर की एक दाई ने आकर कहा―“यह तो जान बूझकर आदमी को मजवाना है।”

मैंने पूछा―“क्या हुआ है?”

दाई ने कहा―“बूढ़ी दादा बाबू की (बुढ़िया दाई रमण बाबू को दादा बाबू कहती थी) थाली में दाल परोसती थी,―सो उन्हों ने देख कर उहूं। उहूं कर के हाथ से आड़ की, बस सारी दाल हाथ पर पड गई।”

और इधर मैं सुन रही थी कि रमण बाबू ब्राह्मणी पर झुंझाला रहे हैं कि―“जो परोसने का शऊर नहीं है तो फिर को आई? क्या और किसी दूसरे से नहीं परोसवाया जाता?”

फिर राम बाबू ने कहा―“बस, जायो, यह काम तुम्हारा नहीं है, कुमुदिनी को भेज दो।”

मालकिनी तो वहां पर थींही नहीं, फिर मना कौन करता? और इधर खुद मालिक का हुकुम तो उस (हुक्म) का रद कैसे