यहा तक कह कर हम दोनों ही जनी चुप हो गईं, फिर सुभाषिणी ने कहा,―
“भई! तुम्हें यदि कहने में कष्ट हो तो मत कहो। न जानने के कारण ही मैं सुनना चाहती थी।”
मैं ने कहा―“सब कुछ कहूंगी। तुम जो मुझ से स्नेह करती हो, तुम ने जेसा मेरा उपकार किया है, इस कारण से तुम्हें उस बात के जमाने में मुझे कोई कष्ट न होगा।"
मैंंने का नाम न बतलाया, और न उन के घर या गांव का ही नाम बतलाया। अपने पति या ससुर का भी नाम न बतलाया और न अपने ससुराद के गांव हो का नाम बताया। इसके अथावे और सारी बात खोल कर सुना दी। उस के संग भेंट होने तक का सारा हाल कह सुनाया। सुनते सुनते वह रोने लगी और मैं मा जो कहते कहते वो बीच में रोई थी, इस का कहना हो क्या?
उस दिन सो यहाँ तक बातचीत हुई, दूसरे दिन सुभाषिणी फिर मुझे अकेले में ले गई और बोली―“तुम को अपने बाप का नाम बतलाना होगा।”
सुभा०―उन का घर जिस गांव में है, वह भी बतलाना पड़ेगा।
सो भी बतलाया।
सुभा०―डाकघर का नाम बतलाओ।
मैं―डाकघर! डाकघर का नाम डाकघर।