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इन्दिरा।

सहेली को पा कर उस दुःख के समय में भी मुझे कुछ सुख हुआ।

बस मैं केवल मछली र्मास पकाती था और कोई दो एक अच्छी तरकारी बनाती थी और बाकी समय में सुभाषिणी के साथ गप्प करती―उस के बेटे बेटी के साथ कहानी कहती या कभी स्वयं मालकिनी ही के संग जरा चुहुलबाज़ी करती―यही मेरा काम था। पर अन्त वाले काम से एक बड़े झमेले में मैं पड़ गई। मालकिनी समझती थीं कि ‘अभी तो मेरी कच्ची उमर है, केवल भाग्य के फेर से थोड़े से बाल पक गये हैं, सो यदि पके केश उखाड़ दिये जाय तो मैं फिर जवान हो सकती हूं। इसी से वे अकसर जाते ही जिसे ख़ाली देखें उसी से पके बाल उखड़ बाने बैठतीं। एक दिन उन्ही ने इस काम के लिये मुझे बेगार में पकड़ा। मैं हाथ चलाने में तेज़ थी। सो जल्दी २ बरकाती घास के समान केश साफ करती थी। दुर से देख कर सुभाषिणी ने मुझे अगुली के इशारे से बुलाया। तब मैं मालकिनी से छुट्टी ले कर बहू के पास गई। उसने कहा―

“यह क्या करती थी? मेरी सासू जी को सिरगंजी क्यों किये डरती थी?”

मैंने कहा–“उस पाप को एक ही दिन में दूर कर ड़ालना अच्छा है।”

सुभाषिणी― ऐसा करने पर फिर क्या टिकने पाओगी? तो फिर जाओगी कहां?

मैं―पर मेरा हाथ तो रुकता ही नहीं।