नहीं हुआ। न हो―पर काम तो हुआ।” मैं उदासी होकर कुछ कहना ही चाहती थी कि इतने ही में हारानी ने आकर सुभाषिणी से कहा, “आप को बूढ़ी मा बुलाती है।" इतना कह कर वह यों ही मेरी ओर देख कर हसने लगी। मैं जानती थी कि हँसना इसका रोग है। सुभाषिणी सास के पास गई, मैं ओट से उन दोनों को बात सुनने लगी।
सुभाषिणी को सास कहने लगी, “वह छोकड़ी कैथिन कि चली गई?”
सु०―नहीं, उस ने सो अभी तक खाया नहीं है, इसलिये जाने नहीं दिया है।
मालकिनी बोली, “वह कैसी रसोई बनाती है?”
सु०―सो तो मैं नहीं जानती।
माल०―आज नहीं जाय तो क्या हानि है? कल उस से दो एक चीज़ बनवाकर देखना होगा।
सु०―तब उसको रखती हूं।
यह कह कर सुभाषिणी मेरे पास आ कर पूछने लगो,“क्या तुम रांधना जानती हो न?”
मैं ने कहा,“जानती हूं―यह तो पहले भी कह चुकी है।”
सु०―अच्छो रसोई बना सकती हो न?
मैं―कल खा कर देखने ही से मालूम हो जायगा।
सु०―यदि अभ्यास न हो तो कहो, मैं पास में बैठकर सिखाउंगी।
मैं ने हस कर कहा―“अच्छा, पीछे देखा जायगा।”
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