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सातवां परिच्छेद।

किन्तु मैं ने सुन लिया। उसके स्वामी ने भी वैसे ही धीरे से कहा―

“जैसी आज्ञा।”

सु०―किस समय करेंगे?

स्वामी―भोजन के समय।

उन के चले जाने पर मैंने कहा―“मान लो कि वे मुझे रखवा भी दें पर ऐसी कड़ी बात सह के मैं कैसे रह सकूनगी?”

सु०-पीछे देखा जायगा। गंगा तो एक दिन में सूख नहीं जायंगी।

रात में नौ बजे सुभाषिणी के स्वामी (उन का नाम रमण बाबू है) भोजन करने आये। उन की मा निकट में आकर बैठीं। सुभाषिणी मुझे खींच कर ले चली” चलो देखें क्या होता है।”

हमलोगों ने ओट से देखा कि अनेक प्रकार के व्यंजन परोसे गये हैं―पर रमण बाबू ने एक बार ज़रा सा मुह में देकर सब को हटा दिया। कुछ भी खाया नहीं। उनकी माता ने पूछा―

बबुआ! आज खाना काहे नहीं?

पुत्र ने कहा―ऐसी रसोई तो भूत प्रेत भी नहीं जा सकता। इस ब्राह्मणी की बनाई रसोई खाते खाते मुझे तो अरुचि हो गई। इच्छा होती है कि कल के फूआ के घर खाया करू।

तब मालकिनो का मन नीच हुआ। बोलीं,“सो नहीं करना होगा। मैं दूसरी रसोईदारिन बुलाती हूं।”

रमण बाबू चुपचाप हाथ धा कर चले गये। यह देख कर सुभाषिणी बोली, “आज तो हम ही लोगों के लिये इनका भोजन