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सातवा परिच्छेद।

बहू०―रोज़ २ तो ब्राह्मण को भात खिलाना नहीं है। तब तक काम चले, पीछे ब्राह्मणे मिलने से रखी जायगी। ब्राह्मण को लड़की बड़ी टिपोरी होती है। यदि हम लोग उस के रसोई घर में जायं तो वह सब हांड़ी बासन फोड़ के फेंक देती हैं और जूठा भोजन मानो हम लोगों को प्रसाद देने आती है! क्या हम लोग चमइन हैं?

मैंने मन ही मन सुभाषिणी की बहुत प्रशंसा की―देखा कि स्याही के बोतल को वह मूठीं के भीतर रखना जानती है। घर की मालकिनो ने कहा, “हां, सो तो ठीक है―छोटे (गरीब ) लोगों का इतना अभिमान सहा नहीं जाता। और इन दिनों बहुत जगह कैथिन रखने की ही चाल देखती हूं। मुशाहरा कितना किये हो?”

बहू―लो हम से कुछ बात नहीं हुई।

माल०―हाय रे कलयुगी लड़की! नौकर रख के ले तो आई है पर उस के मुशाहरा की बात नहीं हुई?

मालकिनी ने मुझ से पूछा―तू क्या लेगी।

मैंने कहा―अब आप लोगों के आश्रय में आई हू तो जो आप लोग देंगी सोई मैं लूगी।

माल०―सोती है, ब्राह्मणी को कुछ अधिक देना पड़ता है; पर तुम तो कथिन हो―तुम को तीन रूपये का महीना और खाना कपड़ा दूंगी।

मेरे लिये तो उस समय ठहरने की जगह मिलना ही बहुत था― इस लिये मैं उसी पर राज़ी हुई। यह कहना अधिक है कि