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इक्कीसवां परिच्छेद।

मैं―देवता ये तब हुए हैं जब इन को विद्याधरी अन्तर्धान हो गई।

कामिनी―अहा हा! ये विद्या को धरते धरते भी न धर सके। इसलिये हे जीजा! देखो तुम्हारी जैसी विद्या है, उस से धर पकड़ न करना हो अच्छा समझा; क्योंकि वही विद्या बड़ी विद्या है, जो धरी न जाय।

मैं―कामिनी! तैं ने बात बहुत बढ़ाई, सो कहीं अंत में चोरी चमारी तक इन के गले मत मढ़ दीजियो।

कामिनी―इस में मेरा क्या अपराध है? जब जीजाजी कमिसेरियेट का काम करते थे, तब इन्हों ने अवश्य चोरी की है। और रही हमारी―तो जब ये रसद का इन्तज़ाम करते होंगे, तब इन्होंने चमारी भी अवश्य ही की होगी।

उ० बाबू ने कहा―हां, री! छोकड़ी बके जा―‘अमृत बालभाषितम्।'

कामिनी―हां, इसीसे तो जब आप विद्याधरों को शासितम् भी बुद्धि नाशिषम्―अच्छा मैं जायितं क्योंकि मा मुझे पुकारितं।

सचमुच मा पुकारती थीं।

कामिनी मा के पास जाकर तुरत लौट आई और बोली―“जाना आप ने कि क्यों मा ने पुकारितम्? आप अभी दो चार देश रहतम्―और यदि न रहतम्, तो मैं ज़बर्दस्ती राखितम्”

इस समय हम दोनों ने एक दूसरे के मुंह की ओर निहारा इस पर कामिनी ने कहा―“आपस में ताका ताकी क्यों करितम्?