“हां, अच्छी तरह मानते हैं। सुभाषिणी कहती है कि कुमुदिनी शापग्रस्त विद्याधरी है।”
मेरे पति ने पूछा―“कुमुदिनी क्या इंदिरा है? इस बात को ज़रा अच्छी तरह आप अपनी स्त्री से पूछियेगा।” पर यह सुन कर रमण बाबू फिर ठहरे नहीं वरन हंसते हुए चले गये।
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बीसवां परिच्छेद।
विद्याधरी का अन्तधान!
इस भांति बातचीत होने पर हम दोनो जने ठीक समय पर कलकत्ते चले। वे मुझे कालीदोघी नामक उस निगोड़ी दीघी के पार कर के अपने घर की ओर बढ़े।
साथ के लोग मुझे महेशपुर ले गये। गांव के बाहर हो कहार और प्यादों को ठहरने के लिये कह कर मैं पांव प्यादे अकेली हो गांव के भीतर घुसी। पिता का घर सामने देख एक सुनसान जगह में बैठ कर देर तक मैं रोई। इसके बाद घर के भीतर घुसी। सामने ही मैंने पिता को देख कर पालागन किया। वे मुझे देख कर चीन्हते ही मारे आनन्द के ऐसे विह्वल हो गये कि उन सब बातों के यहां पर कहने का मुझे अवसर नहीं है।
मैं इतने दिनों तक कहां थी और अब क्योंकर या कहां से आई―इन बातों को मैंने न कहा―माता पिता के पूछने पर केवल इतना ही कहा कि “पीछे” कहूंगी।