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इन्दिरा

आग लगाने जा कर दूसरे को भी जलाया और आप भी जल गई। होली के दिन गुलाल उड़ाने की भांति दूसरे को रंगने जाकर आप भी अनुराग से रंग गई। मैं खूद करने जाकर आप ही फांसी पर चढ़ गई! यह मैं कह चुकी हूं कि उन का रूप बहुत ही मनोहर था―तिस पर तुर्रा यह कि जिस का ऐसा रूप रंग था, वह मेराही ऐश्वर्थ था―

“उन ही के वा रूप सो, पगी रूप में पाग।
उन ही के अनुराग सो, मेरो अचल सुहाग॥”

उस के अनन्तर यह आग की भरमार! मैं हंसना जानती हूं, तो क्या हंसी का उत्तर हंसी नही है? मैं निहारना जानती हूं, तो क्या उस का पलटा वहीं नहीं है? मेरे अधरोष्ठ दूरही से चुंबन की लालसा से खिल रहे हों, फूल की कली पंखुरी खोल कर फूट निकली हो, तो क्या उन के प्रफुल्ल रक्तपुष्पतुल्य कोमल अधरोष्ठ उसी भांति खिल कर और पंखुरी खोला कर मेरी ओर घूमना नहीं जानते? मैं यदि उन की हंसीमै, उनकी चितवन में और उनके चुंबन की लालसा में इतनी इन्द्रियाकांक्षा के लक्षण देखती तो मैं ही जीत जाती, किन्तु सो नहीं है। उस मुस्कुराहट―उस चितवन और उस अधरोष्ठविस्फुरण में केवल स्नेह―अपरिमित प्रेम है। इसी से तो मैं ही हार गई, और हार कर मैं ने यह बात स्वीकार की कि बस यही तो इस पृथ्वी पर सोलह आना सुख है। जिस देवता ने इस (सुख) के साथ देह का सम्बन्ध लगाया है, न की निज की देह जो जल कर राख हो गई, यह बहुत ही अच्छा हुआ।