ग़रज़ यह सन् १८५० के बलवे की जड़ सिर्फ हिन्दुस्तानी फौज की बिगड़ जाना है कि जिस का इलाज उस वक्त विलायती यानी गोरों की फौज यहां कम रहने के सबब जैसा चाहिये तुर्तन हो सका। और बग़ावत के मानी तो कुल इतने ही लग सकते हैं कि बदमाश और मुससिदों को जैसे अंधे के हाथ बटेर लग जाय मन मानता मौका मिल जाने से ग़दर मच गया।
अब कुछ थोड़ा थोड़ा सा हाल इस बलवे के बड़े बड़े १८५० ई० हंगामों का लिखा जाता है बाईसवीं जनवरी सन् १८५० को कलकत्ते के पास दमदम में जहां तोपखाना और फ़ौज रहती हे सत्तरहवीं हिन्दुस्तानी पल्टन के कमान अफ्सर (कमांडिंग अफिसर) को मालूम हुआ कि सिपाही लोग यह अफवाह सुनकर कि कारतूसों में गाय और सूअर की चरबी लगी है निहायत घबरा गये हैं और जड़ इस अफवाह को यह बतलाते हैं कि तोपख़ाने के किसी ख़लासी ने वहां किसी सिपाही से पानी पीने का लोटा मांगा जब सिपाही ने अपना लोटा देने से इन्कार किया तो खलासी मे कहा “खैर हमको लोटा देने से तो तुम्हारी जात जाती है। लेकिन जब गाय और सूअर की चरबी भले कारतूस दांत से काटोगे तब देखेंगे तुम्हारी जात क्या होती है। सिपाहियों से यह भी मालूम हुआ कि इस तरह की खबर तमाम हिन्दुस्तान में फैल गयी है। और अब छुट्टी लेकर घरजाने पर घरवाले काहे को साथ खायें पीयेंगे यह बड़ी दहशत लगी है। इस बात की तहकीकात हुई और उसी महीने की सत्ताईसवी को गवर्नर जेनरल ने हुक्म दे दिया कि चरबी की जगह जो सरकारी मेगज़ीनों में लगायी जाती थी सिपाही खुद बाज़ार से तेल और मोम ख़रीद कर अपने हाथ से कारतूसों में लगा लेवें पंजाब को भी यही हुक्म भेजा गया। लेकिन अफसोस है कि न गज़ट में छापा गया और न तमाम छावनियों में फ़ोन को समझाया गया।
यह हवा दमदम से बहरामपुर पहुंची। वहां उन्नीसवीं
हिन्दुस्तानी पल्टन थी। उन्नीसवीं फरवरी को रात के वक्त