एक हाथी के भाग जाने से अनन्दपाल सरीखे राजा लड़ाई हार जाते थे। जब जंगल से सोंटे काट काटकर बलों पर सवार जलालुद्दीन खारज्मवाले के आदमी सिंध सागर दुआब में चंगेजख़ां
की फोज से लड़ते थे। और बड़े बड़े बादशाह बिल्कुल मदार
लड़ाई का अपना तीरंदाज़ों पर रखते थे। बराबर देखते चले
आते हो कि कैसी कैसी दलबादल सेना शाह सुल्तान नव्वाब
मरहठे नयपाली और बम्र्हांवालों की सर्कारी ज़रा ज़रा सी फौज
के सामने पीठ दिखा गयी। बात तो यह है कि ड्रूप्ले और बस्सी
सरीखे फरासीसियों की सिखलाई सिपाह भी अंगरेज़ी तोपखाने
के सामने रूई के फाहों की तरह उड़ गयी। अगर कहें कि
रूसवाले क्या अपनी फ़ौजें पंजाब तक नहीं ला सकते हैं तो
टुक सोचना चाहिये कि रूस और पंजाब के दर्मियान कैसे कैसे
जंगल उजाड़ और पहाड़ पड़े हैं पहले तो रूस में इतना
रुपया नहीं कि पचास हज़ार भी अच्छी कवायदवाली फोन
जरूरी तोपखाने के साथ इस राह लाने का खर्च देसके दूसरे
जितने दिन उस फौज को एक हिन्दूकुश पहाड़ के घाटे पार
होने में लगेंगे हमारी सर्कार उस से दूनी फ़ौज धुंए के जहाज़
और रेलगाड़ियों पर इंगलिस्तान से सिंधु कनारे पहुंचा सकती
है और फिर रूसवाले तो वहां रस्ते की सख्ती से थके पकाये
ओर अफगानिस्तान में रसद की कमी और वहां को अबल्बी नयी
होने के सबब भूखे मांदे पहुंचेंगे। और अंगरेज़ सर्हद पर
गोया अपने घर में होंगे पंजाब की ज़र्खेज़ी मशहूर है कैसी कुछ
रसद पहुंचेगी। इसमें किसी तरह का शक नहीं कि उन पचास
हज़ार रूसियों के तबाह करने को सर्कारी एक पल्टन गोरों की
ख़ैबर के मुहाने पर काफी होगी। निदान सर्कार ने ज़रा भी इस
बाल पर गौर न किया और काबुल में फ़ौज लेजाकर शाहशुजा
१८३८ ई० को तख्त पर बैठाने का मंसूबा बांधा रंजीतसिंह को भी उस में शामिल कर लिया और आपसमें अह्द पैमान,होगया कि पिशावर वगैरः जो कुछ इलाके सिंधु उस पार खाह इस पार रंजीतसिंह में दबा लिये थे शाहशुजा या उस का कोई जानशीन कभी उन
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