और ग्रेहम साहिब कोभी क़त्ल किया। फिर वहां से झपट
कर डेविस साहिब जज की कोठी * पर पहुंचा। यह कोठी
दुमंजिली है साहिब एकबछांं लेकर इस जवांमर्दीसे सीढ़ी पर
आ खड़े हुए कि कोई कदम न बढ़ासका। इसी अर्से में फ़ौज
आ गयी डेविस साहिब बचगये वज़ीरअली भागा जयपुर चला
गया। वहां के राजा ने उसे पकड़ कर अंगरेज़ों के हवाले कर
दिया। लेकिन इतना करार करलिया। किन वह मारा जावे
न उस के पैर में बेड़ी डाली जावे। अंगरेज़ों ने कलकत्ते
ले जा कर क़िले में ऐसी एक कोठरी के अंदर क़ैद किया कि
उस को पिंजरा ही कहना चाहिये†।
सआ़दतअ़लीखां फ़ौजखर्च न अदा कर सका इसी लिये सर्कार ने फ़ौजख़र्च के बदले दुआबे का मुल्क और रुहेलखण्ड उस से ले लिया। नया अ़हदनामा लिख गया कि नवाब रज़ीडंट की सलाह मुताबिक अपने मुल्क का इंतिज़ाम दुरुस्त करे ओर इस इंतिज़ामछे फर्रुख़ावाद का नवाब भी सर्कारी पिंशनदार बन गया।
टीपूपर फ़तह पानेके इनाममें गवर्नर जेनरलको मार्किस काखिताबमिला इसी अर्समें फरासीसियों के हमलेसे मिसर को १८०२ ई० बचाने के लिये गोगेंके साथ कुछ हिंदुस्तानी फ़ौज भी यहांसे जहाज़ों पर भेजी गयी। और बड़ा नाम पैदा कर आयी।
पेशवा अब तक गवर्नर जेबरल के कहने से बाहर रहा
था लेकिन जब जसवंतगव हुल्कर ने बड़ी धूम धाम से उस
पर चढ़ाई की तो उस ने घबरा कर गवर्नर जेनरल के कहने
बजिब इस बात का अहदनामा लिख दिया कि किसी कदर
६००००), सारी फ़ौज उस के मुल्क में रहा करे। और उसका
यह वही काठी है जो अब महाराजाधिराज काशी नरेश बहादुर की है और नंदेसर को कहलाती है।
†सन् १८५२ ई० में हमने देखी थी लेकिन अब कुछ तोड़ फोड़ होकर नयी इमारत बन जाने के सबब पता जाता रहा हम जो क़िले में गये कोई बतला न सका।