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रानी केतकी की कहानी

इतना बोले—"अच्छा आप सिधारिए, मैं लिख भेजता हूँ। पर मेरे उस लिखे को मेरे मुँह पर किसी ढब से न लाना। इसीलिये मैं मारे लाज के मुखपाट होके पड़ा था और आप से कुछ न कहता था।" यह सुनकर दोनों महाराज और महारानी अपने स्थान को सिधारे। तब कुँवर ने यह लिख भेजा—"अब जो मेरा जी होठों पर आ गया और किसी डौल न रहा गया और आपने मुझे सौ-सौ रूप से खोला और बहुत सा टटोला, तब तो लाज छोड़ के हाथ जोड़ के मुँह फाड़ के विधिया के यह लिखता हूँ—

चाह के हाथों किसी को सुख नहीं।
है भला वह कौन जिसको दुख नहीं॥

उस दिन जो मैं हरियाली देखने को गया था, एक हिरनी मेरे सामने कनौतियाँ उठाए आ गई। उसके पोछे मैंने घोड़ा बगछुट फेंका। जब तक उजाला रहा, उसकी धुन में बहका किया। जब सूरज डूबा, मेरा जी बहुत ऊबा। सुहानी सी अमरइयाँ ताड़के मैं उनमें गया, तो उन अमरइयों का पत्ता पत्ता मेरे जी का गाहक हुआ। वहाँ का यह सौहिला है। रंडियाँ झूला डाले झूल रही थीं उनकी सिरधरी कोई रानी केतकी महाराज जगतपरकास की बेटी हैं। उन्होंने यह अँगूठी अपनी मुझे दी और मेरी अँगूठी उन्होंने ले ली और लिखौट भी लिख दी। सो यह अँगूठी उनकी लिखौट समेत मेरे लिखे हुए के साथ पहुँचती है। अब आप पढ़ लीजिए। जिसमें बेटे का जो रह जाय, सो कीजिए।" महाराज और महारानी ने अपने बेटे के लिखे हुए पर सोने के पानी से थों लिखा—"हम दोनों ने इस अँगूठो और लिखौट को अपनी आँखों से मला अब तुम इतने कुछ कुदो पचो मत। जो रानी केतकी के माँ-बाप तुम्हारी बात मानते हैं, तो हमारे समधी और समधिन हैं। दोनों राज एक हो जायँगे। और जो कुछ नाँह-नूँह ठहरेगी