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रानी केतकी की कहानी

घोड़ा उसको पा सकता था? जब तलक उजाला रहा उसके ध्यान में था। जब अँधेरा छा गया और जी बहुत घबरा गया, इन अमरइयों का आसरा ढ़ूँढ़कर यहाँ चला आया हूँ। कुछ रोक टोक तो इतनी न थी जो माथा ठनक जाता और रुक रहता। सिर उठाए हाँपता चला आया। क्या जानता था—यहाँ पद्मिनियाँ पड़ी फूलती पेंगें चढ़ा रही हैं। पर यों बदी थो, बरसों मैं भी झूला करूँगा।"

यह बात सुनकर वह जो लाल जोड़ेवाली सबको सिरघरी थी, उसने कहा—"हाँ जी, बोलियाँ ठोलियाँ न मारो और इनको कह दो जहाँ जी चाहे, अपने पड़ रहें; और जो कुछ खाने को माँगें, इन्हें पहुँचा दो। घर आए को आज तक किसी ने मार नहीं डाला। इनके मुँह का डौल, गाल तमतमाए, और होंठ पपड़ाए, और घोड़े का हाँपना, और जी का काँपना, और ठंडी साँसें भरना, और निढाल हो गिरे पड़ना इनको सच्चा करता है। बात बनाई हुई और सचौटी की कोई छिपतो नहीं पर हमारे इनके बीच कुछ घोट कपड़े-लत्ते की कर दो।" इतना आसरा पाके सब से परे जो कोने में पाँच सात पौदे थे, उनको छाँब में कुँवर उदैमान ने अपना बिछौना किया और कुछ सिरहाने घरकर चाहता था कि सो रहें, पर नोंद कोई चाहत को लगावट में आती थी? पड़ा पड़ा अपने जी से बातें कर रहा था। जब रात साँय-साँयें बोलने लगी और साथवालियाँ सब सो रहीं, रानी केतकी ने अपनी सहेली मदनबान को जगाकर यों कहा—"अरी ओ, तूने कुछ सुना है? मेरा जी उस पर आ गया है और किसी डौल से थम नहीं सकता। तू सब मेरे भेदों को जानती है। अब होनो जो हो सो हो; सिर रहता रहे, जाता जाय। मैं उसके पास जाती हूँ। तू मेरे साथ चल पर तेरे पाँवों पड़ती हूँ, कोई सुननेनपाए। अरी यह मेरा जोड़ा मेरे और उसके बनानेवाले ने मिला दिया। मैं इसी जो में इस अमरइयों