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रानी केतकी की कहानी

छत और किवाड़ और आँगन में आरसी छुट कहीं लकड़ी, ईंट, पत्थर की पुट एक उँगली के पोर बराबर न लगी थी। चाँदनी सा जोड़ा पहने तब रात घड़ी एक रह गई थी, तब रानी केतकी सी दूल्हन को उसी आरसी भवन में बैठाकर दूल्हा को बुला भेजा। कुँबर उदैमान कन्हैया सा बना हुआ सिर पर मुकुट धरे सेहरा बाधे उसी तड़ावे और जमघट के साथ चाँद सा मुखड़ा लिये जा पहुँचा जिस जिस ढब में बाह्मन और पंडित कहते गए और जो जो महाराजों में रीतें होतो चलो आईं थीं, उसी डौल से उसी रूप से भँवरी गँठ जोड़ा हो लिया।

अब उदैभान और रानी केतकी दोनों मिले।
आस के जो फूल कुम्हलाए हुए थे फिर खिले॥

चैन होता ही न था जिस एक को उस एक बिन।
रहने सहने सो लगे आपस में अपने रात दिन॥

ऐ खिलाड़ी यह बहुत सा कुछ नहीं थोड़ा हुआ।
आन कर आपस में जो दोनों का, गठजोड़ा हुआ॥

चाह के डूबे हुए ऐ मेरे दाता सब तिरें।
दिन फिरे जैसे इन्हों के वैसे दिन अपने फिरें॥

वह उड़नखटोलीवालियाँ जो अधर में छत सी बाँधे हुए थिरक रही थीं, भर भर झोलियाँ और मुट्ठियाँ हीरे और मोतियाँ से निछावर करने के लिये उतर आइयाँ और उड़नखटोले अधर में ज्यों के त्यों छत बाँधे हुए खड़े रहे। और वह दूल्हा दूल्हन पर से सात सात फेरे वारी फेरे होने में पिस गइयाँ। सभों को एक चुपकी सी लग गई। राजा इंदर ने डूल्हन को मुँह दिखाई में