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रानी केतकी की कहानी

अच्छन बच्छन, उठती हुई कोंपल की काली फवन और मुखड़े का गदराया हुआ जोबन जैसे बड़े तड़के धुँधले के हरे भरे पहाड़ों की गोद से सूरज की किरनें निकल आती हैं। यही रूप था। उनकी भींगो मसों से रस टपका पड़ता था। अपनी परछाई देखकर अकड़ता जहाँ जहाँ छाँव थी, उसका डौल ठीक ठीक उनके पाँव तले जैसे धूप थी।

दूल्हा का सिंहासन पर बैठना

दूल्हा उदैभान सिंहासन पर बैठा और इधर उधर राजा इंदर और जोगो महेंदर गिर जम गए और दूल्हा का बाप अपने बेटे के पीछे माला लिये कुछ गुनगुनाने लगा। और नाच लगा होने और अधर में जो उड़नखटोले राजा इंदर के अखाड़े के थे सब उसी रूप से छत बाँधे थिरका किए। दोनों महारानियाँ सम धिन बन के आपस में मिलियाँ चलियाँ और देखने दाखने को कोठों पर चंदन के किवाड़ों के आड़ तले आ बैठियाँ सर्वांग संगीत भँड़ताल रद्दस हँसी होने लगो। जितनी राग रागिनियाँ थीं, ईमन कल्यान, सुध कल्यान, झिंझोटी, कन्हाड़ा, खम्माच, सोहनी, परज, बिहाग, सोरठ, कालंगड़ा, भैरवी, गीत, ललित भैरो रूप पकड़े हुए सचमुच के जैसे गानेवाले होते हैं, उसी रूप में अपने अपने समय पर गाने लगे और गाने लगियाँ। उस नाच का जो ताव भाव रचावट के साथ हो, किसका मुँह जो कह सके जितने महाराजा जगतपरकास के सुखचैन के घर थे, माधो बिलास, रसधाम कृष्णनिवास, मच्छी भवन, चंद्र भवन सबके सब लप्पे लपेटे और सच्ची मोतियों को कालरें अपनी अपनी गाँठ में समेटे हुए एक भेस के साथ मतवालों के बैठनेवालों के मुँह चूम रहे थे।

बीचोबीच उन सब घरों के एक आरसी धाम बना था जिसकी