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रानी केतको की कहानी

रात जपता हूँ उस अपने दाता के भेजे हुए प्यारे को जिसके लिये यों कहा है—जो तू न होता तो मैं कुछ न बनाता; और उसका चचेरा भाई जिसका ब्याह उसके घर हुआ, उसकी सुरत मुझे लगी रहती है। मैं फूला अपने आप में नहीं समाता, और जितने उनके लड़के वाले हैं, उन्हीं को मेरे जी में चाह है। और कोई कुछ हो, मुझे नहीं भाता। मुझको उस घराने छुट किसी चोर ठग से क्या पड़ो! जीते और मरते आसरा उन्हीं सभों का और उनके घराने का रखता हूँ तीसों घड़ी।

डौल डाल एक अनोखी बात का

एक दिन बैठे-बैठे यह बात अपने ध्यान में चढ़ी कि कोई कहानी ऐसी कहिए कि जिसमें हिंदवी छुट और किसी बोलो का पुट न मिले, तब जाके मेरा जी फूल की कली के रूप में खिले। बाहर की बोली और गँवारी कुछ उसके बीच में न हो। अपने मिलनेवालों में से एक कोई बड़े पढ़े लिखे, पुराने-धुराने, डाँग, बूढ़े घाग यह खटराग लाए। सिर हिलाकर, मुँह थुथाकर, नाक भौं चढ़ाकर, आँखें फिराकर लगे कहने—यह बात होते दिखाई नहीं देती। हिंदवीपन भी न निकले और भाखापन भी न हो। बल जैसे भले लोग अच्छों से अच्छे आपस में बोलते चालते हैं, ज्यों का त्यों वही सव डौल रहे और छाँह किसी की न हो, यह नहीं होने का। मैंने उनकी ठंडी साँस का टहोका खाकर कुँभुलाकर कहा—मैं कुछ ऐसा बढ़-बोला नहीं जो राई को परवत कर दिखाऊँ और मूठ सच बोलकर उँगलियाँ नचाऊँ, और बे-सिर बे-ठिकाने को उलझो-सुलकी बातें सुनाऊँ। जो मुझ से न हो सकता तो यह बात मुँह से क्यों निकालता? जिस ढब से होता, इस बखेड़े को टालता।