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रानी केतकी की कहानी

भार हम पर आ पड़ी है। राजा सूरजभान को अब यहाँ तक बाव बँहक ने लिया है, जो उन्होंने हम से महाराजों से डौल किया है।

सराहना जोगी जी के स्थान का

कैलास पहाड़जो एक डौल चाँदी का है, उसपर राजा जगतपरकास का गुरू, जिसको महेंदर गिर सब इंदरलोक के लोग कहते थे, ध्यान ज्ञान में कोई ९० लाख अतीतों के साथ ठाकुर के भजन में दिन रात लगा रहता था। सोना, रूपा, ताँबे, राँगे का बनाना तो क्या और गुटका मुँह में लेकर उड़ना परे रहे, उसको और बातें इस इस ढब की ध्यान में थीं जो कहने सुनने से बाहर हैं। मेंह सोने रूपे का बरसा देना और जिस रूप में चाहना हो जाना, सब कुछ उसके आगे खेल था। गाने बजाने में महादेव जी छुट सब उसके आगे कान पकड़ते थे। सरस्वती जिसको सब लोग कहते थे, उनने भी कुछ कुछ गुनगुनाना उसी से सीखा था। उसके सामने छः राग छत्तीस रागिनियाँ घाठ पहर रूप बंदियों का सा धरे हुए उसकी सेवा में सदा हाथ जोड़े खड़ी रहती थीं। और वहाँ अतीतों को गिर कहकर पुकारते थे—भैरोगिर, बिभासगिर, हिंडोलगिर, मेघनाथ, केदारनाथ, दीपक सेन, जोतोसरूप, सारङ्गरूप। और तो तिनें इस ढब से कहलाती थीं—गूजरी टोड़ी, असावरी, गौरी, मालसिरी, बिलावली। जब चाहता, अधर में सिंघासन पर बैठकर उदाए फिरता था और नब्बे लाख अतीत गुटके अपने मुँह में लिए, गेरुए बस्तर पहने, जटा बिखेरे उसके साथ होते थे। जिस घड़ी रानी केतकी के बाप की चिट्ठी एक बगला उसके घर तक पहुँचा देता है, गुरू महेंदर गिर एक चिग्घाड़ मारकर दल बादलों को ढलका देता है। वघंबर पर बैठे भभूत अपने मुँह से मल कुछ कुछ पढ़ंत करता हुआ बाव के घोड़े की पीठ लगा और सब अतीत मृगछालों