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आवारागर्द


"बैठ जाइए, डाक्टर साहब, अब आप जा नहीं पावेगे। आपको साथ चलना होगा। आपके आराम की पूरी व्यवस्था हो जायगी।

जै गंगा। थोड़ा नखरा करके मैं राजी हो गया। सवारी, कपड़े, चाय, टोस्ट, मक्खन, खाना, सब जुट गए। काशमीर में मजे की कटने लगी।

एक दिन सध्या-समय एक सकरी गली के सामने झूमता हुआ जा रहा था। क्यों? यह आप समझ जाइए। बदनाम मुहल्ला था, कभी-कभी उधर से यों ही घूम आया करता था। थोड़ी तबियत में गुदगुदी ही पैदा हो जाती थी। यहां और तो सब मौज-वहार थी, पर नकद नारायण जेव में न था, सेठ से कभी मांगा नहीं। और तिकड़म सब छोड़ दी थी। इसी से सिर्फ उधर घूमना मात्र ही हो जाता था, और कुछ नहीं।

हाँ, तो मैं एक सकरी गली के सामने झूमता हुआ जा रहा था। संध्या के धुंधले प्रकाश मे देखा--एक पुराने, छोटे-से मकान की दहलीज़ पर एक श्वेत-बसना स्त्री खड़ी एक वाबू से बाते कर रही है। अधेरे में ठीक-ठीक उसकी आयु और सुन्दरता नहीं भांपी जा सकी। परन्तु ज्यों ही मेरी दृष्टि उस पर पड़ी, बाबू ने उस से कहा-- "नमस्ते" और उसने भी हाथ जोड़ कर नमस्ते कहा। बाबू चल दिए। मगर उस स्त्री ने जो नमस्ते शब्द कहा, उसकी झंकार ने मेरे शरीर में रोमाच कर कर दिया, कुछ विचित्र मधुर स्वर था, फिर मैने सोचा इस बदनाम, गंदी गली मे 'यह शुद्ध नमस्ते' कैसा?

मैंने मुँह उठा कर देखा वह घर के भीतर लौट रही थी, मैंने साहस किया--एक कदम आगे बढ़कर कहा--"नमस्ते" वह लौटी, और आश्चर्य-चकित मेरी ओर उस अँधेरे में देखने लगी। मैने और निकट जाकर कहा-"आपने पहचाना